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रानी लक्ष्मी बाई : अमर वीरांगना और 1857 की नायिका
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1857 के विद्रोह की नायिका और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम वीरता की श्रेणी में सबसे उपर रखा जाता है . रानी लक्ष्मी बाई का व्यक्तित्व आज सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं बल्कि पूरे देश के युवाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत है . हमारे देश की स्वतंत्रता के लिए अनेक राजाओं ने लड़ाइयाँ लड़ी और इस कोशिश में हमारे देश की वीर तथा साहसी स्त्रियों ने भी उनका साथ दिया. इन वीरांगनाओं में रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, आदि का नाम शामिल हैं. रानी लक्ष्मीबाई ने हमारे देश और अपने राज्य झाँसी की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राज्य के खिलाफ लड़ने का साहस किया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुई.
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image source- Google image by-https://www.thebetterindia.com/164676/manikarnika-jhansi-rani-history-childhood-india-news/ |
18 जून 1858 को इस महान नायिका का बलिदान दिवस था , मैं उसी दिन इस वीरांगना के अमर महान शहीद दिवस पर अपने भाव शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता था . यह सर्वविदित है की रानी लक्ष्मी बाई ग्वालियर में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती हुई शहीद हुईं थी . उनके इस बलिदान दिवस पर हम सब को गर्व और आँख नम हैं .
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस के पास एक गांव के ब्राह्मण परिवार में हुआ था . उनके बचपन का नाम मर्णिर्निका था . रानी को प्यार से लोग मनु कहते थे . मनु जब 4 साल की ही थी कि उनकी मां का निधन हो गया . उनकी शिक्षा और शस्त्र का ज्ञान उन्होंने यहीं से प्राप्त किया .
लक्ष्मी बाई के पिता बिठ्ठूर में पेशवा ऑफिस में काम करते थे और मनु अपने पिता के साथ पेशवा के यहां जाया करती थी . पेशवा भी मनु को अपनी बेटी जैसी ही मानते थे और उनके बचपन का एक भाग यहां भी बीता . रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही बहुत तेज तर्रार और ऊर्जा से भरी थी . उनकी इन्ही विशेषताओं के कारण ही पेशवा उन्हें छबीली कहकर पुकारा करते थे .
लक्ष्मीबाई बेहद कम उम्र में ही झांसी की शासिका बन गई . जब उनके हाथों में झांसी राज्य की कमान आई तब उनकी उम्र महज 18 साल ही थी . उनकी शादी 14 साल से भी कम उम्र में झांसी के मराठा शासक गंगाधर राव से हुई .
7 मार्च, 1854 को ब्रिटिश सरकार ने एक सरकारी गजट जारी किया, जिसके अनुसार झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलने का आदेश दिया गया था. रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश अफसर एलिस द्वारा यह आदेश मिलने पर उन्होंने इसे मानने से इंकार कर दिया और कहा ‘ मेरी झाँसी नहीं दूंगी’और अब झाँसी विद्रोह का केन्द्रीय बिंदु बन गया. रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की मदद से एक सेना तैयार की, जिसमे केवल पुरुष ही नहीं, अपितु महिलाएं भी शामिल थी; जिन्हें युध्द में लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था. उनकी सेना में अनेक महारथी भी थे, जैसे : गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुन्दर – मुन्दर, काशी बाई, लाला भाऊ बक्शी, मोतीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, आदि. उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे.
10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका कारण था . जो बंदूकों की नयी गोलियाँ थी, उस पर सूअर और गाय के माँस की परत चढ़ी थी. इससे हिन्दुओं और मुसलमानो की धार्मिक भावनाओं पर ठेस लगी थी और इस कारण यह विद्रोह देश भर में फ़ैल गया था . इस विद्रोह को दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा जरुरी था, अतः उन्होंने झाँसी को फ़िलहाल रानी लक्ष्मीबाई के अधीन छोड़ने का निर्णय लिया. इस दौरान सितम्बर – अक्टूबर, 1857 में रानी लक्ष्मीबाई को अपने पड़ोसी देशो ओरछा और दतिया के राजाओ के साथ युध्द करना पड़ा क्योकिं उन्होंने झाँसी पर चढ़ाई कर दी थी.
इसके कुछ समय बाद मार्च, 1858 में अंग्रेजों ने सर ह्यू रोज के नेतृत्व में झाँसी पर हमला कर दिया और तब झाँसी की ओर से तात्या टोपे के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों के साथ यह लड़ाई लड़ी गयी, जो लगभग 2 सप्ताह तक चली. अंग्रेजी सेना किले की दीवारों को तोड़ने में सफल रही और नगर पर कब्ज़ा कर लिया. इस समय अंग्रेज सरकार झाँसी को हथियाने में कामयाब रही और अंग्रेजी सैनिकों नगर में लूट – पाट भी शुरू कर दी. फिर भी रानी लक्ष्मीबाई किसी प्रकार अपने पुत्र दामोदर राव को बचाने में सफल रही.
17 जून, 1858 में किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ युध्द लड़ते समय उन्होंने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र का मोर्चा संभाला. इस युध्द में उनकी सेविकाए तक शामिल थी और पुरुषो की पोषक धारण करने के साथ ही उतनी ही वीरता से युध्द भी कर रही थी. इस युध्द के दौरान वे अपने ‘राजरतन’ नामक घोड़े पर सवार नहीं थी और यह घोड़ा नया था, जो नहर के उस पार नही कूद पा रहा था, रानी इस स्थिति को समझ गयी और वीरता के साथ वही युध्द करती रही. इस समय वे बुरी तरह से घायल हो चुकी थी और वे घोड़े पर से गिर पड़ी. चूँकि वे पुरुष पोषक में थी, अतः उन्हें अंग्रेजी सैनिक पहचान नही पाए और उन्हें छोड़ दिया. तब रानी के विश्वास पात्र सैनिक उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गये और उन्हें गंगाजल दिया. तब उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा बताई की “ कोई भी अंग्रेज अफसर उनकी मृत देह को हाथ न लगाए. ” इस प्रकार कोटा की सराई के पास ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई अर्थात् वे मृत्यु को प्राप्त हुई.
ब्रिटिश सरकार ने 3 दिन बाद ग्वालियर को हथिया लिया. उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पिता मोरोपंत ताम्बे को गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा दी गयी.
रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश राज्य द्वारा पेंशन दी गयी और उन्हें उनका उत्तराधिकार कभी नहीं मिला. इस प्रकार देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए उन्होंने अपनी जान तक न्यौछावर कर दी.
अंग्रेज़ आर्मी के एक सीनियर ऑफिसर कैप्टन ह्यूरोज ने रानी लक्ष्मी के अतुल्य साहस को देखकर उन्हें सुंदर और चतुर महिला कहा है . बता दें कि ये वही कैप्टन हैं जिनकी तलवार से रानी की मौत हुई थी . ह्यूरोज ने रानी की मौत के बाद उन्हें सेल्यूट भी किया था .
गवालियर में अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मी बाई की मौत गोली लगने से हुई थी, मगर ये गोली किसकी थी, इस पर भी थोड़ा विवाद है . अंग्रेजों के इतिहास की मानें तो रानी लक्ष्मी बाई की मौत कैप्टन ह्यूरोज की तलवार से हुई थी, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मत है कि उनकी मौत ब्रिटिश सैनिक की गोली से हुई थी . हालांकि ये केवल मत ही है .
1858 में सिंधिया राजवंश के खजांची अमरचन्द्र बाठिया का नाम उन अमर शहीदों में लिया जाता है, जिन्होंने अपनी जांन की परवाह न करते हुए भी रानी की मदद की . इतिहासकार बताते हैं कि अमरचन्द्र बाठिया ने सबसे पहले बगावत करते हुए सिंधिया राजकोष का धन रानी को मदद के रूप में दिया था . जिसके कारण उनके उपर अंग्रेजों द्वारा मुकदमा भी चलाया गया था और उन्हें एक पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई . शहर के सराफा बाजार में स्थित ये पेड़ आज भी अमरचंद्र बांठिया और रानी की शहादत का प्रतीक है .
बाद में दामोदर राव इंदौर शहर में बस गये और उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय अंग्रेज सरकार को मनाने एवं अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के प्रयासों में व्यतीत किया. उनकी मृत्यु 28 मई, 1906 को 58 वर्ष में हो गयी.
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